मेवाड़ के महाराणा
संग्रामसिंह का पुत्र विक्रमादित्य कायर, विलासी और अयोग्य था। मेवाड़
की बागडोर जब उसके हाथ में आयी तो उसके कप्रबन्ध के कारण राज्य में अव्यवस्था फैल
गयी। मेवाड़ की पड़ोसी रियासतें मालवा व गुजरात के पठान शासकों ने इस अराजकता का
लाभ उठाकर चितैौड़ पर आक्रमण कर दिया। शक्तिहीन विक्रमादित्य मुकाबला करने में
अपने आपको असमर्थ समझता था।
शत्रु-सेना नगर में
जब प्रवेश करने लगी तो राजपूत नारियां ‘जैौहर’ करती आई हैं।
प्रज्वलित अग्नि की प्रचण्ड लपटों में आत्मसमर्पण करने अपने आपको भस्म कर देना
जैौहर कहलाता है। इसी प्रथा का अनुसरण करने को तत्पर राजपूत नारियों को
विक्रमादित्य की राजरानी जवाहर बाई ने ललकारते हुए कहा-“वीर
क्षत्राणियों जैौहर करके हमें केवल अपने सतीत्व की ही रक्षा कर सकेंगी, इससे देश की रक्षा नहीं हो सकती। हमें मरना तो है ही, इसलिए चुपचाप सार्थक बनायें। जीवन को ही नहीं, मृत्यु
को भी।
जवाहर बाई की इस
घोषणा को सुनकर अगणित वीरांगनाएँ आसमान को
छू रही थीं तो दूसरी ओर एक अद्भूत आग का दरिया बह रहा था। जवाहर बाई के नेतृत्व
में घोड़ों पर सवार,
हाथ में नंगी तलवार लिए, वीर-वधुओं का यह
काफिला शत्रु दल पर कहर ढा रहा था। इस प्रकार सतीत्व के साथ स्वत्व औरदेश रक्षा के
लिए जवाहर बाई के नेतृत्व में इन राजपूत रमणियों ने जो अद्भुत शैौर्य प्रदर्शन
किया, वह प्रशंसनीय और वंदनीय है।
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