रावल समरसिंह के बाद
उसका पुत्र रत्नसिंह चितैौड़ की गद्दी पर बैठा। पद्मिनी रत्नसिंह की मुख्य रानी
थी। पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर दूर तक फैल चुकी थी।
अलाउद्दीन पद्मिनी जैसी अनिंद्य सुन्दरी को प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठा। चितौड़
पर आक्रमण कर दुर्ग को घेर लिया। पर लम्बे समय तक घेरा डाले रहने के बाद भी दुर्ग
पर आधिपत्य जमाने में सफल नहीं हो सका। अलाउद्दीन खिलजी ने देखा राजपूत सैनिकों के
अदम्य साहस और वीरता के आगे उसका बस नहीं चल सकता अतः उसने कृटनीति से काम लेने की
सोची।
रत्नसिंह को उसने दूत
के साथ यह संदेश कहलाया कि“एक बार यदि उसे रानी पद्मिनी को दिखा दें तो मैं घेरा समाप्त कर वापिस
दिल्ली लौट जाऊंगा।” दूत का यह संदेश सुनकर रत्नसिंह
आग-बबूला हो गया और अलाउद्दीन का मुंह तोड़ जवाब देने का उद्यत हुआ। रानी पद्मिनी
ने इस अवसर पर दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने पति रत्नसिंह को समझाया कि “मेरे कारण व्यर्थ ही मेवाड़ी वीरों का रक्त बहाना बुद्धिमानी नहीं है।”
राजपूत रानी को अपनी ही नहीं पूरे चितैौड़ राज्य की चिन्ता थी। वह
नहीं चाहती थी कि उसके कारण चितैौड़ तबाह हो जाय। उसने मध्य मार्ग निकाल कर कि
अलाउद्दीन चाहे तो आइनें में रानी का मुख देख सकता है, समस्या
को सुलझाने का प्रयास किया।
अलाउद्दीन को तो
दिल्ली लौटने का बहाना चाहिए था। घेरा डालने से विजय हासिल नहीं हुई और अब यदि वह
घेरा उठाता तो उसकी एक तरह से पराजय ही होती और वह नहीं चाहता था कि उसके सैनिकों
में यह बात फैले अतः आइने में मुख देखने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। चितैौड़ के
राजमहल में अलाउद्दीन का स्वागत-सत्कार अतिथी की तरह किया गया और दर्पण में
पद्मिनी के मुखारविन्द का दर्शन कर आश्चर्य चकित रह गया। कुटिल हृदय ने मन-ही-मन
चाल चली और जब रत्नसिंह किले से बाहर उसे पहुंचाने गया तो अलाउद्दीन ने अपने
सैनिकों को संकेत किया और तुरन्त रत्नसिह को गिरफ्तार कर लिया गया।
रत्नसिंह को कैद करने
के पश्चात् अलाउद्दीन ने प्रस्ताव रखा कि यदि पद्मिनी को उसे सुपुर्द कर दें तो रत्नसिंह को कैद-मुक्त किया जा सकता है।
पद्मिनी ने इस समय भी कुटनीति का प्रत्युत्तर कूटनीति से ही देना समीचीन समझा।
उसने अलाउद्दीन के पास यह संदेश भेजा कि-“मैं मेवाड़ की
महारानी अपनी सात सैौ सहचारियों के साथ आपके सम्मुख उपस्थित होने से पूर्व अपने
पति के दर्शन करना चाहती हूं अतः यह शर्त स्वीकार हो तो मुझे सूचित करें। पदिानी
का ऐसा संदेश पाकर अलाउद्दीन दीवाना हो गया, जैसे पद्मिनी बस
उसे मिल हो गयी, तुरन्त रानी को कहलवाया “तुम्हारी हर शर्त मुझे स्वीकार्य है।” पद्मिनी को
प्राप्त करने के लिए अलाउद्दीन बेताब हो रहा था।
इधर पद्मिनी ने सात
सी डोलियां तैयार करवाई जिसमें चार अन्दर और दो बाहर राजपूत सैनिक बिठाये गये। सात
सैौ पालकियों में बयालीस सैौ वीर राजपूत सैनिकों के साथ पदिानी अपने पति से मिलने
चली। उसकी डोली के दोनों ओर वीरवर गोरा और बादल घोड़ों पर सवार हो कालजयी प्रहरी
के समान चल रहे थे। यवन सेना और अलाउद्दीन उस काफिले को देख रहे थे। सारी पालकियें
रुकी, पद्मिनी को पालकी में एक लोहार बैठा था अतः पद्मिनी का रत्नसिंह से मिलने
का स्वांग रच कर उसे बंधन मुक्त कर कैद से छुड़ाया और शेष डोलियों से राजपूत वीर
सैनिक वेश में निकल कर यवन सेना पर टूट पड़े। रत्नसिंह गोरा बादल की चतुराई से
सकुशल दुर्ग में पहुंच गये। अलाउद्दीन को परास्त होना पड़ा।
अपनी अपमान जनक पराजय
का बदला लेने अलाउद्दीन कुछ समय उपरान्त हो फिर चितैौड़ पर आक्रमण करता है। राजपूत
केसरिया बाना पहिन कर साका करते हैं। रत्नसिंह युद्ध के मैदान में वीरगति को
प्राप्त हुये तब पद्मिनी राजपूत नारियों की कुल परम्परा मर्यादा और अपने कुल गैौरव
की रक्षार्थ जलकर स्वाहा हो गयी, जिसकी कीर्ति-गाथा आज भी अमर है और सदियों
तक आने वाली पीढ़ी को गैौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।
0 comments:
Post a Comment