सुमति

on Monday 18 July 2016
गढ़मण्डल के सेनापति सुमेरसिंह की बहिन सुमति एक वीर नारी थी, जिसमें सतीत्व, पतिव्रत, देशप्रेम और मातृभूमि की रक्षा के भाव कृट-कूट कर भरे हुए थे। इस वीरांगना का विवाह बदनसिंह नामक एक जागीरदार के साथ होता है।

 अकबर ने जब गढ़मण्डल पर आक्रमण करने को अपने सेनापति आसफ खां को भेजा और लम्बे समय तक संघर्ष के बाद भी उसे किला हस्तगत होने की उम्मीद नहीं रही तो कूटनीति से बदनसिंह को अपनी ओर फोड़कर उसने दुर्ग का सारा भेद जान लिया। सुमति, जो बदनसिंह की पत्नी थी, उसे जब यह जानकारी होती है कि उसके पति ने देशद्रोही बनकर शत्रु को दुर्ग का सारा भेद बता दिया है

 सुमति जैसी वीर नारी एक देशद्रोही की पत्नी कहलाये यह उसे कैसे सहन हो सकता था। उसे अपने पति से घृणा हो जाती है। इतना ही नहीं, ईश्वर से यह प्रार्थना करती है कि हे भगवान् मुझे ऐसा अवसर और ऐसी शक्ति प्रदान कर कि मैं इस कलंक को धो सकूं।

 रानी दुर्गावती ने मुगलों का सामना करते हुए युद्ध में वीरगति प्राप्त की और मुगल सेना का गढ़मण्डल पर अधिकार हुआ उस समय बदनसिंह अपनी पत्नी से मिलने चला। सुमति ने देखा उसका पति मुगलों की विजय को अपनी विजय समझ हर्ष और उल्लास के साथ उसकी ओर आ ही रहा है। बदनसिंह ने सुमति की ओर बढ़ते हुए उसे पुकारते हुए कहा-सुमति! मैंने आज अपने अपमान का बदला ले लिया है, आज बहुत बड़ी सफलता प्राप्त हुई है।

 सुमति ने गरजकर कहा-दूर हट अधर्मीः पापी ! नीच ॥ सुमति एक विश्वासघाती देशद्रोही कृतघ्न की पत्नी नहीं कहलाना चाहती।सुमति ने तमंचा तानकर बदनसिंह की छाती पर दागते हुए कहा-ले, अपने किये का यह पारितोषिक स्वीकार करासुमति ने अपना सुहाग उजाड़ कर माथे पर लगे।

देशद्रोही की पत्नी का कलंक मिटाकर अपने स्वाभिमान की रक्षा की।

 

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