वाक्पुष्टा कश्मीर के
प्रतापी राजा तुंजीन की रानी थी। राजा तुंजीन ने प्रजा के हित में बहुत से कार्य
किये। रानी वाक्पुष्टा भी बड़ी दयालु और परोपकारिणी थी। प्रजा को वह सन्तानवत्
समझाती थी और उसके दुख निवारण को सदा तत्पर रहती थी।
एक बार सर्दी की ऋतु
में अत्याधिक बर्फ गिरने से सारी फसलें नष्ट हो गयी और कश्मीर में भयंकर अकाल पड़
गया। लोग दाने-दाने की तरसने लगे। भूख से तड़फ-तड़फ कर काल-कवलित होने लगे। चारों
ओर काल की भयंकर विभीषिका के कारण हाहाकार मच गया। राजा तुंजीन और रानी वाक्पुष्टा
ने अपनी प्रजा का आर्तनाद सुना और यह हाल देखा तो उनका हृदय विदीर्ण हो गया। प्रजा
की सहायता के लिए राजकोष खाली कर दिया और राज्य की सम्पूर्ण सम्पति अकाल पीड़ित
जनता के लिए खर्च कर दी। इतना ही नहीं राजा और रानी खुद गांव-गांव घूम-घूम कर
पीड़ितों को अन्न बांटने व भूखों को भोजन कराने के कार्य में जुट गये।
खजाना खाली हो गया।
अन्न के भण्डार समाप्त हो गये और अब प्रजा का भूख से तड़फ-तड़फ कर मरने के सिवा और
कोई चारा नहीं राह। यह पीड़ाजनक दृश्य देखकर राजा तुंजीन का धैर्य टूट गया। उसने
अपनी रानी से कहा-“मेरे सामने मेरी प्रजा भूख और प्यास से तड़फ-तड़फ कर मर रही है, खजाना व अन्न के भण्डार खाली है, ऐसी स्थिति में मैं
जीवित नहीं रहना चाहता।” रानी वाक्पुष्टा ने राजा की व्यथा
को समझते हुए और धैर्य बंधते हुए कहा-“स्वामी! आत्महत्या
करना वीर पुरुषों को शोभा नहीं देता। प्रजा-पालन करना हमारा धर्म है और जब हम
स्वयं अपने को समाप्त कर देंगे तो प्रजा का पालन और उसकी रक्षा का प्रयास कौन
करेगा।” इस प्रकार आत्माहत्या के लिए उद्यत अपने पति को रानी
वाक्पुष्टा ने रोका। ईश्वर-कृपा से अकाल का प्रभाव समाप्त हुआ। वह कष्टकारी समय
बीत गया पर उस काल में रानी वाक्पुष्टा द्वारा किये गये ये दया और पुण्य के कार्य सदियों
बाद भी याद किये जाते हैं।
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