दमयन्ती

on Friday 1 July 2016
दमयन्ती विदर्भ देश के भीष्मक नामक राजा की पुत्री थी। राजा भीष्मक ने संतान प्राप्ति हेतु दमन ऋषि की सेवा की और उन्हीं के आशीर्वाद से भीष्मक के चार संतानें हुई-दम, दान्त और दमन नामक तीन पुत्र और दमयन्ती नामक कन्या। दमयन्ती अत्यन्त रूपवती थी। उन्हीं दिनों निषध देश पर नल नामक राजा राज्य करता था। वीरसेन का पुत्र नल गुणवान और परम सुन्दर था। विदर्भ की राजकुमारी दमयन्ती राजा नल के गुणों की प्रशंसा सुन उसके प्रति आकृष्ट हो गयीऔर उधर राजा नल भी दमयन्ती के रूप-सौन्दर्य और गुणों पर मुग्ध हो मन-ही-मन उसे चाहने लगा था।

अपनी पुत्री को विवाह योग्य समझ  राजा  भीष्मक ने  स्वयंवर का आयोजन किया।  दमयन्ती के स्वयंवर का निमन्त्रण पाकर देश-देश के महाराजा  विदर्भ पहुंचने  लगे। भीष्मक ने उनके स्वागत-सत्कार की पूरी व्यवस्था कर रखी थी। राजा-महाराजा तो क्या इन्द्र और लोकपाल आदि देवता भी बिना निमंत्रण के ही उस अनिंद्य सुन्दरी के स्वयंवर में भाग लेने पहुंचे।

राजा नल की कीर्ति सुनकर दमयन्ती उसके प्रति पूर्णतः अनुरक्त हो गयी थी। यह बात इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम जो इस स्वयंवर में भाग लेने आये थे, उन्हें पहले ही ज्ञात हो गयी। ये चारों देवता दमयन्ती से विवाह को उत्सुक थे। उन्होंने पहले तो स्वयं नल को भेष बदलकर अपना प्रतिनिधि (दूत) बनाकर दमयन्ती के पास भेजा किन्तु उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हुआ दमयन्ती ने अपना निश्चय दोहराया कि मैंने तो अपने आप को राजा नल के चरणों में समर्पित कर दिया है। चारों देवता यह बात सुनकर क्रद्ध हुए और सबने मिलकर एक उपाय खोजा। उन चारों देवताओं ने नल का रूप धारण कर लिया और स्वयंवर में जहां राजा नल बैठे हुए थे, उनके पास आकर बैठ गये।

 स्वयंवर का सभा-मण्डप देश-देश के राजाओं से खचाखच भरा हुआ था। देवता, यक्ष, नाग, गन्धर्व, किन्नर, मनुष्य सभी समुदायों के प्रभावशाली व्यक्ति इसमें उपस्थित थे। दमयन्ती ने रंग मण्डप में प्रवेश किया। सभी प्रतियोगी सम्भलकर बैठे। दमयन्ती एक-एक नरेश को देखकर आगे बढ़ती गई। उसकी

 आंखें तो नल की छवि देखने को उत्सुक थी, केवल नल को ढूंढ रही थी। आगे जहां नल बैठे थे उस स्थान पर दमयन्ती पहुंची तो एक ही जगह पांच नल बैठे दिखाई दिये। सब का एक ही रंग, एक ही रूप, एक ही वेशभूषा। दमयन्ती अपने प्रियतम को नहीं पहचान सकी, वह बड़ी उलझन में पड़ गयी। मन-ही-मन उसने परमेश्वर को याद किया और इस समस्या से उबारने की प्रार्थना की। उसके हृदय की सच्ची पुकार और राजा नल के प्रति अटूट अनुराग को देख ईश्वर ने उसे देवता और मनुष्य का भेद करने की बुद्धि प्रदान की। कुछ ही क्षण बीते थे कि वह असमंजस की स्थिति से निकल गयी। उसने नल वेशधारी पांचों लोगों को गैौर से देखा तो उसे ज्ञात हुआ कि जो देवता नल का रूप धारण करके बैठे हैं, उनके शरीर पर पसीना नहीं है, उनकी पलकें नहीं झपकती, उनकी माला कुम्हलायी हुई नहीं है और उनकी छाया भी नहीं पड़ रही थी। राजा नल में ये सभी बातें भिन्न दृष्टिगोचार हुई और इस रीति से, उसने अपने प्रियतम को पहचान लिया और राजा नल के गले में वरमाला ढाल दी।

 दमयन्ती को पाकर राजा नल अत्यन्त हर्षित हुआ। देव दुर्लभ वस्तु प्राप्त कर उसके हर्ष की सीमा नहीं रही। दमयन्ती, जिसने देवलोक का अद्भुत वैभव और ऐश्वर्य ठुकराकर राजा नल को स्वीकार किया। इतने बड़े त्याग को देखकर राजा नल दमयन्ती के हाथों बिना मोल बिक गया था। राजा नल उस परम रूपवती दमयन्ती का कृतज्ञ और आभारी था। दमयन्ती निषध-नरेश नल की महारानी बनी। प्रेम और सुख से उनका समय बीतने लगा।

 सुख-दुख का चक्र निरन्तर चलता ही रहता है। समय सदा एक-सा नहीं रहता। राजा नल गुणवान, धर्मात्मा और पराक्रमी थे पर जुए का एक दुव्र्यसन भी उनमें था और यह उनके दुख का कारण बन जाता है। जुए में नल अपना सर्वस्व हार गये। जब भाग्य प्रतिकूल होता है तो विपरीत परिणाम ही प्राप्त होते हैं। रानी दमयन्ती की सलाह का भी उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। परिणामस्वरूप राज्य त्याग कर, शरीर से वस्त्राभूषणों को उतार वे केवल एक वस्त्र पहने हुए दमयन्ती के साथ नगर से बाहर निकले। राज्य से च्युत होने के बाद राजा नल पत्नी के साथ तीन दिन तक नगर के बाहर बैठे पर किसी ने उनकी मदद न की। जल पीकर तीन दिन बिताये। नगर के कुछ लोगों की सहानुभूति उनके प्रति थी परन्तु नये राजा के राज्यादेश एवं मृत्युदण्ड के भय से कोई मदद करने की हिम्मत नहीं जुटा सका। नल और दमयन्ती निराश होकर जंगल की ओर चल दिये। ऐसी विकट परिस्थिति में भी दमयन्ती ने अपने पति का अनुसरण कर पतिव्रत धर्म का पालन किया। जंगल-जंगल भटकने और अनेक कष्टों को भी वह प्रसन्नता से झेल रही थी।

 राजा नल अकिंचन व असहाय था। उससे अपनी प्राणप्यारी दमयन्ती का दुख नहीं देखा जा रहा था। एक दिन जब दमयन्ती सोयी हुई थी, उसे अकेला छोड़ वे चल दिये। दमयन्ती की नीद टूटी और जब नल को अपने पास नहीं देखा तो भय और आशंका से वह कांप उठी। नल के वियोग में दमयन्ती अत्यन्त दुखी अवस्था में इधर-उधर भटकने लगी।

 दमयन्ती ने यह कभी नहीं सोचा था कि देवलोक के ऐश्वर्य को ठुकरा कर मैंने जिस व्यक्ति से प्रेम किया है वह राजा नल मुझे जंगल में अकेली और असहाय अवस्था में छोड़ जायेगा। क्या यह पुरुष प्रकृति है या कठोर नियति? उसने अपने आपको संभाला और जो कष्ट उसे झेलना है उसे क्यों न वह संयत भाव से झेले, यह सोचा। सम्मुख आई विपति का दृढ़ता से मुकाबला करना राजपूत नारियों की अद्भुत परम्परा रही है। विकट परिस्थिति में भी उसका धैर्य नहीं डगमगाता। पतिव्रता का सतीत्व भंग नहीं होता। वह जब प्रतिकूल से प्रतिकूल स्थिति का मुकाबला करने को उद्यत हो उठती है तो उसे अनुकूलता में परिवर्तित कर देती है।

 दमयन्ती ने नल से बिछुड़ कर अनेक कष्ट भोगे, संकट सहे पर हार नहीं मानी और अपने प्रिय की खोज में लगी रही। अन्ततोगत्वा उसे अपने निर्दिष्ट उद्देश्य में सफलता हासिल होती है और वह अपने पति राजा नल को खोज लेती है। संकट का समय व प्रतिकूल परिस्थिति का अन्त होता है और दमयन्ती का पुनर्मिलन होता है। नल फिर अपना पैतृक राज्य प्राप्त कर लेते हैं। इस पूरे घटनाक्रम में दमयन्ती का विभिन्न परिस्थितियों में धैर्य, संघर्ष और साहस प्रकट होता है वह अनुकरणीय है।

 

 

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