सुनीति

on Thursday 14 July 2016
राजा उत्तानपाद के दो रानियां थी। बड़ी रानी सुनीति एवं छोटी सुरुचि। सुनीति पटरानी थी किन्तु राजा उत्तानपाद ने सुरुचि के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर विवाह किया था। सुरुचि जितनी सुन्दर थी उतनी ही चतुर और धूर्त भी। उसने अपनी रूपराशि के मोहजाल से राजा उत्तानपाद को शीघ्र ही अपने वश में कर लिया। सुनीति राजमहिषी थी, यज्ञादि कार्यों एवं अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में राजा के साथ उसकी प्रधान रानी सुनीति ही भाग लेती थी। यह बात छोटी रानी को बहुत अखरती थी। मन-ही-मन वह द्वेष करती थी। उल्टी सीधी मनगढ़न्त बातें बनाकर राजा उत्तानपाद को उसके विरुद्ध कर दिया। उत्तानपाद जिसे सुरुचि के सैौन्दर्य ने जड़ और अंधा बना दिया था। विवेक रहित होकर राजा उत्तानपाद ने सुरुचि को हर बात को मानना प्रारम्भ कर दिया। अन्त में एक दिन अपने मान का ढ़ोंग रच सुरुचि ने अपनी सौत सुनीति को, जो अत्यन्त गुणवान थी, राजमहलों से निर्वासित करा दिया। काम का आकर्षण गुण की अपेक्षा रूप की ओर अधिक होता है। राजा उत्तानपाद ने महारानी सुनीति का परित्याग कर दिया।

पति-परित्यक्ता सुनीति गोद में अपना नन्हा शिशु लिए राजधानी के समीप स्थित महर्षि अत्रि के आश्रम में निवास करने लगी। राजवैभव का परित्याग उस गुणवान नारी ने राजमहलों में ही कर दिया था। अब वह एक तपस्विनी की भांति अपना जीवन व्यतीत करने लगी। पति से परित्यक सुनीति की आशा का केन्द्र अब उसकी गोद का बालक धुव को देख-देख कर सुरुचि अपने जीवन के शेष दिन व्यतीत कर रही थी। वही उसका एक मात्र सहारा था।

उधर सुरुचि यह भली भांति जानती थी। कि मैंने कपट पूर्वक सुनीति को पति से परित्यक तो करवा दिया परन्तु एक समस्या अभी और शेष है, वह है ध्रुव की। ध्रुव सुनीति का पुत्र था और वह सुरुचि के पुत्र उत्तम से बड़ा था। नियमानुसार वही राज्य का उत्तराधिकारी था अतः सुरुचि अब इसी प्रयास में लगी हुयी थी कि जितना हो सके धुव राजा से दूर रहे जिससे उनका स्नेह सिर्फ उत्तम पर ही रहे और वे उसे ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करें।

धुव अभी पांच वर्ष का ही था कि एक दिन अपनी माता से आज्ञा लेकर पिता के दर्शन हेतु राजधानी में गया। धुव के साथ आश्रमवासी अन्य ऋषिकुमार भी थे। राजधानी में पहुंच कर इन ऋषिकुमारों ने जब राजभवन में प्रवेश किया तो राजा उत्तानपाद ने उन्हें प्रणाम कर उनका अभिवादन किया। ध्रुव ने अपने पिता के चरणों पर जब मस्तक रखा तो राजा उत्तानपाद अपने इस सुन्दर व तेजस्वी बालक को गोद में लेने का मोह संवरण न कर सके। -

बालक धुव को राजा की गोदी में बैठा देख उसकी विमाता सुरुचि के कलेजे पर सांप लोटने लगे। उसने आते ही तुरन्त महाराजा को कहा महाराज! आपने अभागिन के इस पुत्र को गोद में क्यों बैठाया है, यह आपको शोभा नही देता है।यह कहती हुयी सुरुचि राजा के समीप गयी और बालक ध्रुव का तिरस्कार करती हुई उसे अपने पिता की गोद से नीचे उतार दिया। इतना ही नहीं सुरुचि उसका अपमान करते हुए आगे यह कहने से भी नहीं चूकि कि तुमने आभागी माता के गर्भ से जन्म लिया है। यदि तुम्हे महाराजा की गोद अथवा सिहांसन पर बैठना है तो मेरी कोख से जन्म लेना पड़ेगा।राजा उत्तानपाद सहसा कुछ बोल न सके। ऋषिकुमार यह दृश्य देख स्तब्ध रह गये। विमाता के व्यंग्य बाणों से आहत धुव के नेत्रों से क्रोधाग्नि प्रकट हो रही थी। उसका शरीर कांपने लगा। उसने एक बार अपने पिता की ओर देखा, वे चुपचाप बैठे थे। कठोर नेत्रों से उसने अपनी विमाता को देखा और तीव्रगति से वहां से प्रस्थान कर दिया।

राजधानी से बालक धुव सीधा अपनी माता के पास आश्रम में पहुँचा। सुनीति ने अपने पुत्र की मनोव्यथा जानने हेतु पुचकारते हुए कहा-कहो तुम्हें किसने मारा है, किसने तुम्हारा अपमान किया है?” मां की गोदी में मुंह छिपाये बालक धुव फूट-फूट कर रोने लगा और बड़ी कठिनता से रोते-रोते ही उसने सारा वृत्तान्त अपनी माता को सुनाया। सुनीति ने अपने लाल को छाती से लगा लिया और उसकी पीठ सहलाते हुए उसे सांत्वना प्रदान की।

बालक ध्रुव को विमाता की बात बहुत कचोट रही थी। वह अब भी सिबुक रहा था और पिता की गोद से जिस प्रकार उसे अपमानित कर उतारा गया, उससे बड़ा खिन्न था। उसने अपनी माता को फिर कहा-क्या किसी पुत्र को अपने पिता की गोद में बैठने का अधिकार नहीं है? और फिर मुझे अभागिन का पुत्र कहकर विमाता ने मेरा ही नही माँ, तुम्हारा भी तो अपमान किया है, मैं इसे भी सहन नहीं कर सकता।

सुनीति के धैर्य का बांध टूट गया -सचमुच, बेटा, मैं अभागिनी हूँ। मैं अभागिनी नहीं होती तो अपने ही स्वामी द्वारा मेरा परित्याग नहीं होता। पति द्वारा परित्यक्त पत्नी संसार में अभागिनी ही मानी जाती है। ऐसी अभागी माता के कोख से जन्म लेना सचमुच तेरे अभाग्य का ही सूचक है।कहते-कहते सुनीति के नेत्रों से आंसुओं की धार बह निकली। अश्रुपूर्ण नेत्रों से अपने प्राणों से प्रिय पुत्र ध्रुव को समझाते हुए सुनीति ने कहा -बेटा, तुम्हारी विमाता ने जो कहा है वह सत्य है। उसी में तुम्हारा कल्याण है। भगवान् की तपस्या कर तुम संसार में सबसे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर सकते हो। तुम्हारे पिता की गोद में तुम्हारे लिए चाहे कोई स्थान न - हो किन्तु परम पिता परमेश्वर की गोद में बैठकर तुम निश्चिन्त हो सकते हो, वहां से तुम्हारी विमाता तुम्हें कभी नहीं उतार सकती।

मां की यह बात सुनकर धुव का सारा दुख दूर हो गया। उसने जगत् के पिता की गोद में बैठने की ठान ली। वह विमाता के पुत्र उत्तम से भी उच्च स्थान प्राप्त करने का इच्छुक हो उठा और उसने मां से यह जान लिया कि भगवान् को तपस्या द्वारा प्रसन्न कर मनचाहा वरदान प्राप्त किया जा सकता है। उसने उसी समय वन जाने का निश्चय कर लिया।

गोद से उतरकर बालक धुव ने अपनी मां के चरणों पर मस्तक रखा। पांच वर्ष का नन्हा बालक, सुनीति की आंखों का तारा, उसके जीवन का एकमात्र सहारा, भगवद् भक्ति हेतु वन में जाने के लिए मां से आशीर्वाद मांग रहा था। श्रेष्ठ कार्य हेतु सुनीति ने अपने पुत्र में अत्याधिक उत्कंठा और जिज्ञासा देख रोकना उचित न समझा। उसने अपने पुत्र को बांहों में भर गोदी में लिया, स्नेह से पुत्र का मुंह चूमा। भरे नेत्रों और गदगद् कठ से वन को विदा होते ध्रुव को आशीर्वाद देते हुए सुनीति ने कहा -जाओ पुत्र, उस जगत् पिता को प्रसन्न करो, प्रभु तुम्हारा मंगल करें।

धन्य है वह धुव-जननी सुनीति जिसे अपने जीवन भर की खुशियों को तिलांजलि दे पुत्र की मंगल कामना हेतु जो त्याग किया वह बेमिसाल है। सुनीति-पुत्र इस धुव ने आगे चलकर सर्वेश्वर भगवान को प्रसन्न कर नित्यलोक की प्राप्ति का वरदान प्राप्त किया। पांच वर्ष का वह नन्हा सा बालक ईशभक्ति की ओर प्रवृत्त होकर आगे चलकर धुव पद प्राप्त करके धुव लोक का अधिपति बना जिसकी समस्त ग्रह, नक्षत्र और सम्पूर्ण तारा वर्ग प्रदिक्षणा करता है उसकी उपलब्धि में उसकी जननी की महती भूमिका रही। यह सुनीति का परिणाम था की धुव को धुव बनवाया।

स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अंधेरे से। मनुष्य के लिये क्षमा और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श है। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म और अध्यात्म और ऋषियों का आश्रय लेकर उस लक्ष्य पर पहुंचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है, पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूँ उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ और नारियों का त्याग एक तरफ ।  प्रेमचन्द (गोदान, पृष्ठ १६३)

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