कौशल्या

on Saturday 2 July 2016
कौशलराज की राजकुमारी कौशल्या आयोध्यापति अज के पुत्र युवराज दशरथ से ब्याही गयी थी। अज के पश्चात् दशरथ अयोध्या के राजा बने और कौशल्या राजमहिषी। राजा दशरथ के, कहते हैं, कई रानियां थी, उनमें प्रमुख तीन का नाम कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा था। कौशल्या प्रथम परिणीता होने के नाते पट्टरानी थी।

राजा दशरथ सबसे छोटी महारानी कैकेयी के प्रति अत्यधिक आकृष्ट रहे। कौशल्या ने पतिव्रत धारण करते हुए कभी इस बात का बुरा नहीं माना। वह प्रारम्भ से ही धार्मिक विचारों की थी। राजा दशरथ के इस व्यवहार से वह और अधिक धार्मिक बन गयी। और राजभवन में रहते हुए भी एक तपस्विनी का-सा जीवन व्यतीत करने लगी। दान-पुण्य, जप-तप, पूजा-पाठ और अनेक प्रकार के व्रत और अनुष्ठान में रत रहती थी। स्त्रियों के लिए सपत्नी द्वारा किये गये अपमान से बढ़कर कोई कष्ट नहीं हुआ करता। कैकेयी राजा दशरथ की प्रिय रानी थी अतः उसने पट्टरानी कौशल्या को बहुत कष्ट दिये, यहां तक कि कैकेयी के सेवक आदि भी कष्ट देने से नहीं चूके, फिर भी पृथ्वी-सी धैर्यवान् महारानी कौशल्या ने चुपचाप सब कुछ सहन किया। बड़ा भारी मानसिक कष्ट उठाया परन्तु अपनी शालीनता की मर्यादा का पालन करते हुए कभी किसी के सामने कैकेयी की निन्दा नहीं की।

 

पुत्रप्राप्ति हेतु राजा दशरथ ने महर्षि वशिष्ठ के निर्देशानुसार श्रृंगी ऋषि के नेतृत्व में पुत्रेष्टि यज्ञ किया गया। उस यज्ञ में अग्निदेव ने प्रकट होकर राजा को जो सन्तानोत्पति हेतु चरू दिया, उसका अर्द्ध भाग महारानी कौशल्या को प्राप्त हुआ और इसी की कोख से भगवान् राम ने अवतार लेकर माता कौशल्या को विश्व वन्द्य बना दिया। - माता कौशल्या ने राम के रूप में पुत्र प्राप्त कर अपने आपको परम धन्य समझा । और उनके सारे क्लेश परमानन्द में परिणत हो गये। मातृत्व स्त्री की सबसे बड़ी चाह होती है। मां अपनी सन्तान को प्राणों से भी अधिक चाहती है। कौशल्या को राम परमप्रिय थे परन्तु साथ ही कैकेयी पुत्र भरत पर भी उनका अनुपम स्नेह था।

 

राम की भांति ही भरत पर उनका वात्सल्य था, यह कितनी अद्भुत बात थी। इतना ही नहीं राम अपने चारों भाइयों में सबसे बड़े थे। उन्हें जब युवराज पद देना तय हुआ उस समय कैकेयी ने राजा दशरथ से पूर्व में दिये गये वचन के आधार पर राम को चौदह वर्ष का वनवास और भरत को युवराज पद के राज्य तिलक का वरदान मांगा। राजा दशरथ वचनबद्ध थे, कैकेयी की बात को स्वीकार करना पड़ा। उस समय राम वन गमन के लिये प्रस्थान करने से पूर्व कौशल्या से आज्ञा और आशीर्वाद लेने जाते है तब भी माता कौशल्या के भावं संकीर्ण नहीं हुए। कैकेयी ने चाहे जो किया हो, परंतु भरत भी तो मेरा ही पुत्र है। भाइयों में परस्पर द्वेष न हो यही भाव रखते हुए अपने हृदय को कठोर बनाकर प्राणों से भी अधिक प्यारे पुत्र राम को वन जाने की आज्ञा प्रदान करती है। तुलसीदास ने इस प्रसंग का कितना मार्मिक दृश्य प्रस्तुत किया है

 

जों केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता । जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना। राम के वन गमन के पश्चात् वियोग से त्रस्त हो राजा दशरथ जब अपना शरीर त्याग देते हैं तब उनकी महारानी कौशल्या सती होना चाह रही थी परन्तु भरत ने उन्हें मना कर दिया। भरत, जो राम वन गमन के बाद कैकयी के महल की ओर जाना तो दूर रहा, भूलकर देखते तक नहीं थे। ऐसे पुत्र के अवकृत्रिम स्नेह का परित्याग उससे करते नहीं बना। भरत के लिए अब वही एक मात्र आश्रय रह गयी थी। अतः पति के साथ चितारोहण का विचार भरत के अनुरोध पर कौशल्या को छोड़ना पड़ा। कैसा विलक्षण उदाहरण है मातृत्व भाव का। इसकी क्षमता करने वाला कोई उदाहरण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है।

 
चित्रक्तूट में सीता कौशल्या के सामने ही कैकेयी को भला बुरा कहने लगी। उस समय कौशल्या ने जो ये निम्नलिखित उद्गार प्रकट किये वे कितने गरिमामय है-जनक नन्दिनी! आप तो परम ज्ञानी महाराज विदेह की पुत्री है। आप जानती है कि कोई किसी को दुखः नहीं देता। दैव की प्रेरणा से ही ये सारे कार्य होते हैं, प्राणी तो उसका निमित्त मात्र है। उसे दोष देना ठीक नहीं।

 

ऐसे विचारों वाली मर्यादा पुरुषोत्तम राम की जननी कौशल्या के हृदय की उदारता, विशालता व गरिमा का उदाहरण अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। इसी ममतामयी मातृत्व ने राम को राजपूतोचित गुणों और आदशों से ऐसा संस्कारित किया कि कौशल्यानंदन जगतवंदनीय राम बन गया।

 

0 comments:

Post a Comment